1857 की क्रांति एक ऐसा महायुद्ध था जिसमें हर किसी ने अपना योगदान दिया, इस जनक्रांति में सभी ने कुछ न कुछ खोया, किसी ने अपने प्राण न्योछावर कर दिए तो किसी ने देश की खातिर अपना सर्वस्व गंवा दिया. सिर्फ पुरुषों ने ही नहीं बल्कि महिलाओं ने भी इस लड़ाई ने कंधे से कंधा मिलाकर साथ दिया और अंग्रेजों को नाकों चने चबाने पर मजबूर कर दिया. ऐसी ही एक वीरांगना थीं बेगम हजरत महल, अवध की ‘लक्ष्मीबाई’ बनकर इन वीरांगना ने अपने शौर्य के दम पर अवध को अंग्रेजों से मुक्त करा लिया था.
नवाब वाजिद अली को अंग्रेजों ने बना लिया था बंदी
ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1856 में अवध पर हमला किया था, उस समय अवध एक बहुत ही बड़ी और समृद्ध रियासत होती थी, इसके नवाब वाजिद अली शाह थे, अंग्रेजों ने हमलाकर इन्हें बंदी बना लिया था. इसके बाद इन्हें कोलकाता जेल में भेज दिया गया. बेगम हजरत मेहल इन्हीं नवाब वाजिद अली की दूसरी बेगम थीं.
बिरजिस क़द्र को बनाया नवाब
नवाब वाजिद अली शाह की गिरफ्तारी के बाद बिरजिस कद्र को नवाब की गद्दी पर बैठाया गया, लेकिन वह नाबालिग था, इसलिए रियासत की सत्ता बेगम हजरत महल ने संभाली. हालांकि ये सत्ता पूरी तरह से बेगम के हाथ में नहीं थी क्योंकि अवध पर अंग्रेजों का कब्जा हो चुका था.
1857 में फूटी क्रांति की लहर
मेरठ में क्रांति का बिगुल बजने के बाद अवध क्षेत्र भी अंग्रेजों से मुकाबले के लिए तैयार हो गया. बेगम हजरत महल के साथ आस पास की रियासतों के हिंदू और मुस्लिम शासक भी आ गए और अंग्रेजों के साथ भयंकर युद्ध में वीरता का परिचय दिया. लखनऊ के पास हुए युद्ध में बेगम हजरत महल ने दिलकुशा और चिनहट में अंग्रेजों को करारी शिकस्त दी और अवध ही नहीं बल्कि आसपास की कई रियासतों को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त करा दिया.
अंग्रेजों ने वापस ले लिया अवध
कुछ दिन बाद ही अंग्रेजों ने बड़ी सेना के साथ वापसी की और फिर युद्ध किया, इस बार बेगम हजरत महल को अन्य रियासतों का उतना सहयोग नहीं मिला और उन्हें हार का सामना करना पड़ा, हालांकि अंग्रेजों के हाथों बंदी बनाए जाने से बेहतर उन्होंने अवध से निकलना जरूरी समझा और जंगलों में शरण ली और समय-समय पर अंग्रेजों से मुकाबला करती रहीं.
नेपाल में ली अंतिम सांस
अवध के जंगलों में रहकर बेगम हजरत महल काफी दिनों तक अंग्रेजों से गोरिल्ला युद्ध करतीं रहीं, लेकिन ईस्ट इंडिया कंपनी से रानी विक्टोरिया के हाथ में सत्ता आने के बाद अंग्रेज ज्यादा मजबूत हो गए और उन्होंने विद्रोहियों का दमन शुरू कर दिया, धीरे-धीरे बेगम हजरत महल की ताकत भी कम हो गई. इसके बाद उन्होंने नेपाल में राजा जंग बहादुर के यहां शरण ली और बेटे के साथ साधारण जीवन व्यतीत किया. 1879 में उनका इंतकाल हो गया. इसके बाद 1887 में अंग्रेजों ने उनके पुत्र बिरजिस कद्र को घर लौटने की इजाजत दे दी थी.
1988 में जारी किया गया था डाक टिकट
भारत सरकार ने प्रथम स्वाधीनता संग्राम की याद में एक डाक टिकट 1988 में जारी किया था. इस टिकट में बेगम हजरत महल को दूसरे नंबर पर जगह दी गई थी, पहले नंबर पर झांसी की रानी लक्ष्मीबाई और तीसरे नंबर पर तात्या टोपे थे, चौथे नंबर पर बहादुर शाह जफर इसके बाद मंगल पांडे और फिर नाना साहब का जिक्र था, हालांकि चित्र सिर्फ रानी लक्ष्मीबाई और बेगम हजरत महल का था.