स्वतंत्रता आंदोलन अपने चरम पर था, क्रांतिकारी गतिविधियां तेज हो चुकी थीं. साइमन कमीशन का विरोध कर रहे लाला जी (लाला लाजपत राय) लाठीचार्ज में घायल होकर शहीद हो चुके थे और भगत सिंह और राजगुरु ब्रिटिश अफसर जॉन सान्डर्स की हत्या कर उनकी शहादत का बदला भी ले चुके थे. अब अगली योजना बनाई जानी थी ताकि अंग्रेजों की जड़ों को मिटाया जा सके, लेकिन जरूरत थी भगत सिंह को बचाने की. दरअसल लाहौर में सान्डर्स की हत्या के बाद पूरा ब्रिटिश तंत्र बौखला गया था. ऐसे में ये तय हुआ कि क्रांतिकारी और खासकर भगत सिंह कुछ दिन अज्ञातवास में रहेंगे, ऐसे में निर्णय लिया गया कि भगत को आगरा में रखा जाए. TV9 की इस खास सीरीज में आज हम आपको भगत सिंह के उसी अज्ञातवास के बारे में बता रहे हैं.
दिल्ली में तय हुआ था कहां रहेंगे भगत सिंह
उस वक्त तक देश काकोरी केस के हीरो राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खां, रोशन सिंह जैसे तमाम क्रांतिकारियों को खो चुका था, सान्डर्स की हत्या के बाद भगत सिंह अंग्रेजों का अगला टारगेट थे ऐसे में क्रांतिकारियों की एक गुप्त बैठक बुलाई गई. स्वतंत्रता सेनानी चिंतामणि शुक्ल की पुस्तक आगरा में क्रांतिकारियों की अमरगाथा के मुताबिक बैठक में ही हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातंत्र सेना का गठन किया गया, इसका केंद्र आगरा को चुना गया. इसी बैठक में निर्णय लिया गया था कि भगत सिंह का आगरा में ठहरना ठीक रहेगा.
नूरी दरवाजे पर लिया था कमरा
आगरा आने के बाद भगत सिंह ने नूरी दरवाजे पर लाला छन्नोमल के यहां पांच रुपये महीने किराए पर कमरा लिया था. नूरी दरवाजे पर आज भी जर्जर अवस्था में स्थित यह कमरा उस समय क्रांतिकारियों का मुख्य केंद्र हुआ करता था. प्रजातंत्र सेना की मुख्य बैठकें इसी कमरे में होती थीं. बाहर से आने वाले क्रांतिकारी भी यहीं रुकते थे और आजादी के आंदोलन की धार को तेज करने की योजना बनाते थे.
भगत सिंह की जगह नाम रखा था रणजीत
देश में खबर फैल चुकी थी की सान्डर्स की हत्या हो चुकी है, शक भगत सिंह पर था, ऐसे में कोई भी रिस्क न लेते हुए आगरा में कमरा लेते वक्त भगत सिंह ने अपना नाम रणजीत बताया था. इसी नाम से आगरा कॉलेज में प्रवेश लिया था और पढ़ाई शुरू कर दी थी, ताकि किसी को शक न हो कि इनका यहां पर रहने का उद्देश्य क्या है.
चंद्रशेखर आजाद बने थे बलराम, राजगुरु बने थे रघुनाथ
आगरा के क्रांतिकारियों पर लिखी स्वतंत्रता सेनानी चिंतामणि शुक्ल की पुस्तक के मुताबिक उस समय सिर्फ भगत सिंह ही नहीं बल्कि चंद्रशेखर आजाद, राजगुरु और अन्य क्रांतिकारी भी आगरा में रुके थे. चंद्रशेखर आजाद ने अपना नाम बलराम, राजगुरु ने रघुनाथ, बटुकेश्वर दत्त ने मोहन, भगवान दास माहौर ने कैलाश, शिव वर्मा ने प्रभात और सुखदेव ने विलेजर नाम रखा था.
यहीं बना था वो बम जो असेंबली में फेंका गया था
भगत सिंह ने यहां सिर्फ अज्ञातवास ही नहीं बिताया, यहीं पर वो बम भी तैयार किया गया था जो 8 अप्रैल 1929 को असेंबली में फेंका गया था. चिंतामणि जी की पुस्तक के मुताबिक यहां सिर्फ नूरी दरवाजा में ही नहीं बल्कि नाई की मंडी और हींग की मंडी में भी कमरे किराए पर लिए गए थे, आगरा उस समय क्रांति के आंदोलन का केंद्र बन गया था. यहीं पर क्रांतिकारियों को बम बनाने की ट्रेनिंग दी गई थी. यहीं पर क्रांतिकारी समिति की गुप्त बैठकें हुआ करती थीं. सरदार भगत सिंह शहीद स्मारक समिति की ओर से आगरा के क्रांतिकारियों पर लिखी पुस्तक में भी इसका जिक्र है. हींग की मंडी स्थित मकान को बम फैक्ट्री के तौर पर प्रयोग किया जाता था. क्रांतिकारी जतींद्र नाथ बम बनाने का प्रशिक्षण देते थे. भगत सिंह और साथियों ने यहीं बम तैयार किए थे, इन्हीं में से दो बम असेंबली में फेंके गए थे. हालांकि ये भी कहा जाता है कि असेंबली में फेंका गया बम ग्रेटर नोएडा क्षेत्र के एक गांव में बनाया गया था.
बेनी हलवाई का दूध मिटाता था भूख
क्रांति की राह पर चल रहे रणबांकुरों के सामने बहुत सी मुसीबत थीं, खाने को लाले थे, ब्रिटिश पुलिस से भी बचना था और क्रांति के कारनामों को भी अंजाम देना था. लिहाजा कई-कई दिन हो जाते थे और इन्हें ठीक से खाना नसीब नहीं होता था. ऐसे में हलवाई बेनी के दूध से क्रांतिकारी अपनी भूख मिटाते थे, यहां क्रांतिकारियों का उधार चलता था. ये वही बेनी हलवाई थे जिन्हें लाहौर षड्यंत्र केस में अंग्रेजों ने सरकारी गवाह के तौर पर लाहौर बुलाया था, लेकिन इन्होंने भगत सिंह, सभी को पहचानने को इन्कार कर दिया था. जब क्रांतिकारियों को इस बात का पता चला तो वह भावुक हो गए थे.
बम फोड़ने के समय बटुकेश्वर दत्त भी थे साथ
8 अप्रैल 1929 को सेफ्टी बिल और ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल के विरोध में भगत सिंह ने असेंबली में बम फोड़ दिया था, बटुकेश्वर दत्त भी इसमें साथ थे. इन दमनकारी कानूनों के विरोध में पर्चे फेंककर भगत सिंह और दत्त ने इंकलाब जिंदाबाद के नारे लगाए थे. मौके पर ही उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया था. बाद में लाहौर षड्यंत्र कांड में दोषी मानते हुए भगत सिंह को फांसी दे दी गई थी, वहीं बटुकेश्वर दत्त को उम्रकैद की सजा सुनाई गई थी.